अभिलाषाष्टक स्रोत
॥ ॐ नमः शिवाय ॥
एक ब्रह्मवाद्वितीय समस्तं सत्यं सत्यं नेह नानास्ति किञ्चित्।
एको रुद्रों न द्वितीयों वत्सथे तस्मादेक त्वा प्रपद्ये महेशहम।
यहाँ सब कुछ एकमात्र अद्वितीय ब्रह्म है। यह बात सत्य है , सत्य है। इस जगत में कुछ भी भिन्न नहीं है। इसलिए मैं आप महेश्वर के अद्वितीय स्वरूप की शरण लेता हूँ।
एक: कर्ता हि विश्वस्य शम्भो नाना रूपेष्वेकरूपोऽस्परूपः।
यद्वत्प्रत्यस्वर्क एको ऽप्यनेकस्तस्मान्नान्यं विनेश प्रपद्ये।।
शम्भो! हम निराकार या एकरूप होते हुए भी संसार में अनेक रूपों में प्रकट होते हैं। उसी प्रकार सूर्य भी जल के अनेक रूपों में प्रकट होता है। अतः मैं आपके अतिरिक्त किसी अन्य की शरण में नहीं जाता।
रज्जौ सर्पः शुक्तिकायां च रूप्यं नैरः पुरस्तन्मृगाख्ये मरीची।
यतद्वंद् विश्वगेष प्रपंञ्चो यस्मिन् ज्ञाते तं प्रपद्ये महेशहम
जैसे रस्सी का पता चलने पर सर्प का भ्रम मिट जाता है , सीपी का रजत रूप नष्ट हो जाता है और मृगतृष्णा का समाधान हो जाने पर उसमें दिखाई देने वाला जल प्रवाह मिथ्या सिद्ध हो जाता है, उसी प्रकार सर्वत्र दिखाई देने वाला सम्पूर्ण जगत् उनमें विलीन हो जाता है, उन महेश्वर की मैं शरणागति करता हूँ ॥
तोये शैत्यं दाहकत्वं च वहन तापो मानौ शीतभानी प्रसादः।
पुष्पे गन्धों दुग्धमध्ये च सर्पिर्यत्तच्छम्भो त्वं ततस्त्वां प्रपद्ये ॥
शम्भो! जैसे जल में शीतलता , अग्नि में दाह , सूर्य में ऊष्मा , चन्द्रमा में सुख , पुष्पों में सुगन्ध और दूध में घी विद्यमान है , वैसे ही आप सम्पूर्ण जगत में व्याप्त हैं , अतः मैं आपकी शरण में हूँ॥
शब्द गृहणास्यश्रवास्त्वं हि जिधेरप्राणस्त्वं व्यंनिरायासि दूरात्।
व्यक्षः पश्यैस्त्वं रसज्ञोऽप्यजिह्वः करत्वां सम्यग् वेत्त्यतस्त्वां प्रपद्ये ।।
आप बिना कण के ही शब्द सुनते हैं, नासिका के बिना ही सू घटे हैं , पैगे के बिना ही दूर से चले आते हैं , नेत्रों के बिना ही देखें और रसना के बिना ही रस का अनावत हैं, वास्तव में आपको कौन जानता है ? अतः मैं आपकी शरण लेता हूँ।
नो वेदस्त्वामीश साक्षादि वेद नो या विष्णुनों विधाताखिलस्य।
नो योगीन्द्रा नेन्द्रमुख्याश्च देवा भक्तो वेद त्वामतस्त्वा प्रपद्ये ॥
हे! वेद भी आपके वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते , ब्रह्मा आदि सबकी सृष्टि करने वाले भगवान विष्णु भी आपको नहीं जानते , महान योगीश्वर और इंद्र आदि देवता भी आपको यथार्थ रूप से नहीं जानते , परन्तु आपके भक्त आपकी कृपा से आपको जानते हैं , अतः मैं आपकी शरण में हूँ।
नो ते गोत्र नेश जन्मापि नाख्या नो वा रूपं नैव शील न देशः।
इत्यंभूतोऽपीश्वरस्तवं त्रिलोक्याः सर्वान् कामान् पूरयेस्तद् भजे त्वाम् ।।
हे प्रभु! आपकी न कोई जाति है , न कोई जन्म , न कोई नाम , न कोई रूप , न कोई आचार और न ही कोई पद ; फिर भी आप तीनों लोकों के स्वामी हैं और समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं , इसलिए मैं आपकी पूजा करता हूँ।
त्वत्तः सर्व त्वं हि सर्व स्मरारे त्वं गौरीशस्त्वं च नग्नोऽतिशान्तः।
त्वं वै वृद्धस्त्वं युवा त्वं च बालस्तत्किं यत्त्वं नास्यतस्त्वां नतोऽस्मि ।।
साथी ! आप ही सब कुछ हैं , आप ही सब कुछ हैं , आप ही पार्वतीपति हैं , आप दिगम्बर और परम शान्त हैं , आप ही वृद्ध हैं , आप ही युवा हैं और आप ही बालक हैं। ऐसा कौन-सा तत्त्व है , जो आप नहीं हैं , सब कुछ आप ही हैं , इसलिए मैं आपके चरणों में अपना मस्तक झुकाता हूँ ॥
अभिलाषाष्टक स्रोत स्कंद पुराण के काशी खंड में वर्णित है और भगवान शिव जी की स्तुति में रचित है। जो भी भक्त पूरे विधि विधान से इस स्तोत्र को पड़ता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
अभिलाषाष्टक स्तोत्र के लाभ
. इस स्तोत्र को पढ़ने से संतान प्राप्ति की कामना पूरी होती है। संतान की कामना रखने वाले पत्नी पति को स्नान के बाद भगवान शिव जी को पूज कर इस स्तोत्र का जाप आठ बार करना चाहिए।
. स्रोत को पढ़ने से धन की प्राप्ति होती है और परिवार में समृद्धि आती है।
. इस स्तोत्र को पढ़ने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।