Chaupai Sahib

चौपयी साहिब(Chaupai Sahib)

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Chaupai Sahib,

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

पातिसाही १० ॥

कबियो बाच बेनती ॥

चौपई ॥


हमरी करो हाथ दै रच्छा ॥ 

पूरन होइ चित की इच्छा ॥ 

तव चरनन मन रहै हमारा ॥ 

अपना जान करो प्रतिपारा ॥३७७॥


हमरे दुसट सभै तुम घावहु ॥ 

Chaupai Sahib

आपु हाथ दै मोहि बचावहु ॥ 

सुखी बसै मोरो परिवारा ॥ 

सेवक सिक्ख सभै करतारा ॥३७८॥


मो रच्छा निज कर दै करियै ॥ 

सभ बैरन को आज संघरियै ॥ 

पूरन होइ हमारी आसा ॥ 

तोर भजन की रहै पिआसा ॥३७९॥


तुमहि छाडि कोई अवर न धियाऊं ॥ 

जो बर चहों सु तुम ते पाऊं ॥ 

सेवक सिक्ख हमारे तारीअहि ॥ 

चुनि चुनि सत्र हमारे मारीअहि ॥३८०॥


आप हाथ दै मुझै उबरियै ॥ 

मरन काल का त्रास निवरियै ॥ 

हूजो सदा हमारे पच्छा ॥ 

स्री असिधुज जू करियहु रच्छा ॥३८१॥


राखि लेहु मुहि राखनहारे ॥ 

साहिब संत सहाइ पियारे ॥ 

दीन बंधु दुसटन के हंता ॥ 

तुम हो पुरी चतुर दस कंता ॥३८२॥


काल पाइ ब्रहमा बपु धरा ॥ 

काल पाइ सिवजू अवतरा ॥ 

काल पाइ कर बिसनु प्रकासा ॥ 

सकल काल का कीआ तमासा ॥३८३॥


जवन काल जोगी सिव कीओ ॥ 

बेद राज ब्रहमा जू थीओ ॥ 

जवन काल सभ लोक सवारा ॥ 

नमसकार है ताहि हमारा ॥३८४॥


जवन काल सभ जगत बनायो ॥ 

देव दैत जच्छन उपजायो ॥ 

आदि अंति एकै अवतारा ॥ 

सोई गुरू समझियहु हमारा ॥३८५॥


नमसकार तिस ही को हमारी ॥ 

सकल प्रजा जिन आप सवारी ॥ 

सिवकन को सिवगुन सुख दीओ ॥ 

सत्््रुन को पल मो बध कीओ ॥३८६॥


घट घट के अंतर की जानत ॥ 

भले बुरे की पीर पछानत ॥ 

चीटी ते कुँचर असथूला ॥ 

सभ पर कृपा दृसटि कर फूला ॥३८७॥


संतन दुख पाए ते दुखी ॥ 

सुख पाए साधुन के सुखी ॥ 

एक एक की पीर पछानैं ॥ 

घट घट के पट पट की जानैं ॥३८८॥


जब उदकरख करा करतारा ॥ 

प्रजा धरत तब देह अपारा ॥ 

जब आकरख करत हो कबहूँ ॥ 

तुम मै मिलत देह धर सभहूँ ॥३८९॥


जेते बदन सृसटि सभ धारै ॥ 

आपु आपनी बूझ उचारै ॥ 

तुम सभही ते रहत निरालम ॥ 

जानत बेद भेद अर आलम ॥३९०॥


निरंकार नृबिकार निरलंभ ॥ 

आदि अनील अनादि असंभ ॥ 

ता का मूड़्ह उचारत भेदा ॥ 

जा को भेव न पावत बेदा ॥३९१॥


ता को करि पाहन अनुमानत ॥ 

महा मूड़्ह कछु भेद न जानत ॥ 

महादेव को कहत सदा सिव ॥ 

निरंकार का चीनत नहि भिव ॥३९२॥


आपु आपनी बुधि है जेती ॥ 

बरनत भिंन भिंन तुहि तेती ॥ 

तुमरा लखा न जाइ पसारा ॥ 

किह बिधि सजा प्रथम संसारा ॥३९३॥


एकै रूप अनूप सरूपा ॥ 

रंक भयो राव कही भूपा ॥ 

अंडज जेरज सेतज कीनी ॥ 

उतभुज खानि बहुर रचि दीनी ॥३९४॥


कहूँ फूल राजा ह्वै बैठा ॥ 

कहूँ सिमटि भि्यो संकर इकैठा ॥ 

सगरी सृसटि दिखाइ अचंभव ॥ 

आदि जुगादि सरूप सुयंभव ॥३९५॥


अब रच्छा मेरी तुम करो ॥ 

सिक्ख उबारि असिक्ख संघरो ॥ 

दुशट जिते उठवत उतपाता ॥ 

सकल मलेछ करो रण घाता ॥३९६॥


जे असिधुज तव सरनी परे ॥ 

तिन के दुशट दुखित ह्वै मरे ॥ 

पुरख जवन पग परे तिहारे ॥ 

तिन के तुम संकट सभ टारे ॥३९७॥


जो कलि को इक बार धिऐ है ॥ 

ता के काल निकटि नहि ऐहै ॥ 

रच्छा होइ ताहि सभ काला ॥ 

दुसट अरिसट टरें ततकाला ॥३९८॥


कृपा दृसटि तन जाहि निहरिहो ॥ 

ताके ताप तनक मो हरिहो ॥ 

रिद्धि सिद्धि घर मो सभ होई ॥ 

दुशट छाह छ्वै सकै न कोई ॥३९९॥


एक बार जिन तुमै संभारा ॥ 

काल फास ते ताहि उबारा ॥ 

जिन नर नाम तिहारो कहा ॥ 

दारिद दुसट दोख ते रहा ॥४००॥


खड़ग केत मै सरणि तिहारी ॥ 

आप हाथ दै लेहु उबारी ॥ 

सरब ठौर मो होहु सहाई ॥ 

दुसट दोख ते लेहु बचाई ॥४०१॥


कृपा करी हम पर जगमाता ॥ 

ग्रंथ करा पूरन सुभराता ॥ 

किलबिख सकल देह को हरता ॥ 

दुसट दोखियन को छै करता ॥४०२॥


स्री असिधुज जब भए दयाला ॥ 

पूरन करा ग्रंथ ततकाला ॥ 

मन बाछत फल पावै सोई ॥ 

दूख न तिसै बिआपत कोई ॥४०३॥


अड़िल ॥

सुनै गुँग जो याहि सु रसना पावई ॥ 

सुनै मूड़ चित लाइ चतुरता आवई ॥ 

दूख दरद भौ निकट न तिन नर के रहै ॥ 

हो जो या की एक बार चौपई को कहै ॥४०४॥


चौपई ॥


संबत सत्रह सहस भणिजै ॥ 

अरध सहस फुनि तीनि कहिजै ॥ 

भाद्रव सुदी असटमी रवि वारा ॥ 

तीर सतुद्रव ग्रंथ सुधारा ॥४०५॥


स्वैया ॥

पाइ गहे जब ते तुमरे तब ते कोऊ आँख तरे नही आनयो ॥ 

राम रहीम पुरान कुरान अनेक कहैं मत एक न मानयो ॥ 

सिंमृति सासत्र बेद सभै बहु भेद कहै हम एक न जानयो ॥ 

स्री असिपान कृपा तुमरी करि मै न कहयो सभ तोहि बखानयो ॥८६३॥


दोहरा ॥

सगल दुआर कउ छाडि कै गहयो तुहारो दुआर ॥ 

बाहि गहे की लाज असि गोबिंद दास तुहार ॥८६४॥


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